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नवजात शिशुओं में हीमोलिटिक रोग - DPMI India

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September 12, 2025
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हीमोलिटिक रोग एक गंभीर स्थिति है जिसमें नवजात शिशु के रक्त में लाल रक्त कोशिकाएँ (RBCs) जल्दी नष्ट हो जाती हैं। यह तब होता है जब मां और शिशु के रक्त समूह में असंगति (Incompatibility) होती है, जिससे मां की प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) भ्रूण की लाल रक्त कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए एंटीबॉडी बनाती है।

हीमोलिटिक रोग के प्रकार:

1.       Rh असंगति (Rh Incompatibility):

                जब मां का रक्त समूह Rh- (नकारात्मक) और बच्चे का Rh+ (सकारात्मक) होता है।

                पहली गर्भावस्था में आमतौर पर समस्या नहीं होती, लेकिन दूसरी गर्भावस्था में मां की प्रतिरक्षा प्रणाली एंटीबॉडी बना सकती है, जो भ्रूण की RBCs को नष्ट कर सकती है।

2.       ABO असंगति (ABO Incompatibility):

                जब मां का रक्त समूह O और बच्चे का A, B या AB होता है।

                यह समस्या आमतौर पर हल्की होती है, लेकिन कुछ मामलों में गंभीर पीलिया (Jaundice) हो सकता है।

हीमोलिटिक रोग की प्रक्रिया (Pathophysiology):

                जब मां के शरीर को भ्रूण की लाल रक्त कोशिकाएँ विदेशी लगती हैं, तो वह एंटीबॉडी (Antibodies) बनाती है।

                  ये एंटीबॉडी प्लेसेंटा के माध्यम से भ्रूण में प्रवेश करती हैं और उसके RBCs को नष्ट (Hemolysis) करती हैं।

                  इससे भ्रूण में एनीमिया (Anemia), हाइपरबिलीरुबिनेमिया (Hyperbilirubinemia), और पीलिया (Jaundice) जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

लक्षण (Symptoms):

                  जन्म के तुरंत बाद या कुछ दिनों के भीतर पीलिया (Jaundice)

                  त्वचा और आंखों का पीला होना।

                  शरीर में सुस्ती (Lethargy) और कम सक्रियता।

                  एनीमिया (Anemia) के कारण त्वचा पीली या हल्की हो सकती है।

                  गंभीर मामलों में शरीर में सूजन हो सकती है, जिससे अंगों और पेट में तरल भर जाता है।

                  सांस लेने में तकलीफ और दिल की धड़कन तेज होना।

निदान (Diagnosis):

                1. Coombs Test (डायरेक्ट एंटीग्लोबुलिन टेस्ट) – यह परीक्षण यह जांचने के लिए किया जाता है कि शिशु के रक्त में मां की एंटीबॉडी मौजूद हैं या नहीं।

                2. ब्लड ग्रुप टेस्ट – मां और शिशु के रक्त समूह का मिलान किया जाता है।

                3. बिलीरुबिन स्तर की जांच – रक्त में बिलीरुबिन का स्तर मापा जाता है, जो पीलिया की गंभीरता को दर्शाता है।

                4. फीटल अल्ट्रासाउंड (Fetal Ultrasound) – गर्भावस्था के दौरान भ्रूण में एनीमिया या हाइड्रोप्स फेटालिस की जाँच के लिए किया जाता है।

                5. एमीओसेंटेसिस (Amniocentesis) – गर्भाशय में एमनियोटिक द्रव का परीक्षण करके यह देखा जाता है कि भ्रूण में बिलीरुबिन का स्तर कितना अधिक है।

इलाज (Treatment):

            1. फोटोथेरेपी (Phototherapy):

                हल्के से मध्यम स्तर के पीलिया के इलाज के लिए विशेष नीली रोशनी (Blue Light) का उपयोग किया जाता है, जो बिलीरुबिन को कम करने में मदद करता है।

            2. इंट्रावेनस इम्यूनोग्लोबुलिन (IVIG):

                यह एंटीबॉडी की क्रिया को धीमा करता है और रक्त कोशिकाओं के नष्ट होने की प्रक्रिया को कम करता है।

            3ब्लड ट्रांसफ्यूजन (Exchange Transfusion):

                • जब नवजात में अत्यधिक एनीमिया या पीलिया होता है, तो उसके रक्त को आंशिक रूप से बदलने के लिए यह प्रक्रिया की जाती है।

                • इसमें नवजात का रक्त धीरे-धीरे निकालकर नई RBCs से प्रतिस्थापित किया जाता है।

            4ऑक्सीजन थेरेपी और सपोर्टिव केयर:

                • अगर नवजात को सांस लेने में दिक्कत हो रही है, तो उसे ऑक्सीजन सपोर्ट दिया जाता है।

रोकथाम (Prevention):

1. Rh-नकारात्मक मां को Rhogam (Anti-D Immunoglobulin) इंजेक्शन देना:

                अगर गर्भवती महिला Rh- है और बच्चा Rh+ हो सकता है, तो उसे 28वें सप्ताह में और प्रसव के 72 घंटों के भीतर Rhogam का इंजेक्शन दिया जाता है।

                  यह मां की प्रतिरक्षा प्रणाली को भ्रूण की RBCs के खिलाफ एंटीबॉडी बनाने से रोकता है।

2. गर्भावस्था के दौरान नियमित जांच (Regular Antenatal Screening):

                हर गर्भवती महिला को पहले ही अपने ब्लड ग्रुप और एंटीबॉडी स्क्रीनिंग टेस्ट करवाना चाहिए।

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